*डकैतों की कहानी :गब्बर ने तांत्रिक के कहने पर 116 लोगों के नाक-कान काटकर देवी को चढ़ा दिए थे,ऐसा डाकू जिससे उस वक्त के प्रधानमंत्री नेहरू भी परेशान थे*

*डकैतों की कहानी :गब्बर ने तांत्रिक के कहने पर 116 लोगों के नाक-कान काटकर देवी को चढ़ा दिए थे,ऐसा डाकू जिससे उस वक्त के प्रधानमंत्री नेहरू भी परेशान थे*

साल 1926 में मध्य प्रदेश के भिंड जिले के डांग गांव में एक बच्चे का जन्म होता है। मां-बाप ने उसका नाम प्रीतम सिंह रखा, लेकिन प्यार से गबरा कह कर बुलाते। पैदा गरीब घर में हुआ था, लेकिन देखने में कहीं से गरीब नहीं लगता था। एकदम तंदुरुस्त, फूले हुए गाल।
खेती से गुजारा नहीं हो पा रहा था इसलिए पिता पत्थर की खदानों में मजदूरी करके परिवार को पालते थे। जैसे ही गबरा 16 साल का हुआ, पिता ने उसे भी खदान में मजदूरी के लिए लगा दिया। इसी बीच एक जमीन का विवाद हुआ। गांव के 4 रसूखदार लोगों ने गबरा के पिता को बुरी तरह से पीटा। पिता ने पंचायत बुलाई तो पंचायत ने गबरा के पिता की जमीन ही कब्जे में ले ली। ये सब गबरा को बर्दाश्त नहीं हुआ। मौका पाते ही गबरा ने पिता को मारने वालों में से 2 लोगों की हत्या कर दी और फरार हो गया।

कहानी उसी लड़के प्रीतम सिंह उर्फ गबरा की जो बाद में कुख्यात डाकू गब्बर सिंह बन गया। ऐसा डाकू जिससे उस वक्त के प्रधानमंत्री नेहरू भी परेशान थे। 100 से ज्यादा लोगों के नाक-कान क्यों काट दिए थे? आइए जानते हैं…

*गांव के दो लोगों की हत्या कर डाकू कल्याण सिंह की शरण में पहुंच गया*

साल 1955 में गांव के 2 लोगों की हत्या करने के बाद गबरा चंबल के बीहड़ों में पहुंच गया। पुलिस पीछे थी, इसलिए उसने चंबल के बड़े डाकू कल्याण सिंह की गैंग जॉइन कर ली और बीहड़ को ही अपना घर बना लिया। गबरा ने कुछ दिन तक कल्याण से डाकू बनने के गुर सीखे और खुद की गैंग बना ली।
अब गबरा हर दिन अपहरण, लूट और हत्या जैसी घटनाओं को अंजाम देने लगा था। उसका गैंग बड़ा होता जा रहा था। पुलिस उसके पीछे पड़ी थी।

*तांत्रिक ने कहा- 116 लोगों की नाक और कान काट दे तो कभी एनकाउंटर नहीं होगा*

एक तांत्रिक ने उससे कहा, “अगर तुम 116 लोगों की नाक और कान काट कर अपनी कुल देवी को चढ़ाओगे तो पुलिस तुमको कभी नहीं पकड़ पाएगी और ना ही कभी तुम्हारा एनकाउंटर होगा।” गबरा अंधविश्वासी था। इसके बाद उसने एक नियम बना लिया कि जिसकी भी हत्या करेगा, उनके नाक और कान काट लेगा। जिनका अपहरण करता था उनके भी नाक-कान काटकर जिंदा छोड़ देता था।

जब भी पुलिस से मुठभेड़ होती, उनको मारता और उनके भी नाक-कान काट देता था। कुछ ही दिनों में उसने 100 से ज्यादा लोगों के नाक और कान काट लिए थे। चंबल के आस-पास के हिस्से में जब भी कोई व्यक्ति बिना नाक या कान के दिखता था तो लोग मान लेते थे कि ये गब्बर सिंह का शिकार हुआ है। इन वारदातों के बाद मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के अलावा गबरा का खौफ पूरे देश में फैल चुका था। अब लोग उसे गब्बर सिंह कह कर बुलाने लगे थे।

*मुखबिरों के लिए काल था गब्बर सिंह*

पुलिस से बचने के लिए गब्बर सिंह ज्यादा सतर्क रहता था। मुखबिरों से उसे सख्त नफरत थी। उसे किसी पर जरा सा भी शक होता था कि कोई उसकी मुखबिरी करने वाला है या कर चुका है तो वो उसे सरेआम मार देता था। उसके खौफ के चलते लोगों ने उसकी मुखबिरी करनी बंद कर दी थी।
भिंड, ग्वालियर, ललितपुर, सागर, पन्ना और धौलपुर जैसे कुल 15 जिलों के लोगों के अंदर उसका इतना खौफ था कि जब भी कोई गब्बर का नाम ले लेता तो दूसरे लोग चुप हो जाते और वहां से चले जाते। साल 1957 तक थाने में उसके खिलाफ 200 से ज्यादा मुकदमे दर्ज हो चुके थे।

*पुलिस ने बच्चों को मुखबिर बनाया तो गब्बर ने 21 बच्चों को एक साथ गोली मार दी*

गब्बर को पकड़ने के लिए पुलिस के पास मुखबिरों के अलावा और कोई दूसरा ऑप्शन नहीं था। पुलिस हर दिन उसको पकड़ने के नए-नए तरीके खोजने में जुटी रहती थी। एक बार पुलिस ने कुछ बच्चों को अपना मुखबिर बना लिया था, क्योंकि जब डाकू गांव आते थे तो बच्चों की नजर उन पर रहती थी। बच्चे पुलिसवालों को गब्बर के मूवमेंट की जानकारी दे दिया करते थे।

जब गब्बर को इस बात की जानकारी लगी तो उसने शक की बिना पर भिंड के पास एक गांव के 21 बच्चों को एक साथ गोली मार दी थी। इस घटना के बाद देश के कोने-कोने में बच्चों के अंदर गब्बर सिंह के नाम का खौफ पैदा हो गया था। बच्चों के मां-बाप उनसे अपनी बात मनवाने के लिए उन्हें गब्बर सिंह के आने का डर दिखाने लगे थे।

*बच्चों की हत्या के बाद नेहरू ने मीटिंग बुलाई और पूछा- गब्बर सिंह कौन है?*

देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को जब 21 बच्चों की हत्या की जानकारी नेहरू को लगी तो उनकी रातों की नींद उड़ गई थी। उन्होंने कई बड़े अफसरों की मीटिंग बुलाई और पूछा, “गब्बर सिंह कौन है?” उस खौफनाक घटना के बाद नेहरू भी बेहद चिंतित हो गए थे और उन्होंने किसी भी हालत में गब्बर का खात्मा करने के आदेश जारी कर दिए थे।

*“गब्बर चाहिए जिंदा या मुर्दा” पहली बार ये डायलॉग एमपी के सीएम के मुंह से निकला था*

शोले फिल्म में ठाकुर का किरदार निभाने वाले संजीव कुमार जब ऊपर लिखा ये डायलॉग बोलते हैं तब दर्शक खूब तालियां बजाते हैं। साल 1975 में फिल्म बनने के 19 साल पहले यानी साल 1956 में असल गब्बर सिंह को पकड़ने के आदेश देते वक्त ये डायलॉग मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू ने बोला था।

21 बच्चों की हत्या के बाद नेहरू ने एमपी के सीएम कैलाश नाथ काटजू को कॉल किया था। नेहरू ने उन्हें किसी भी हाल में, जल्द से जल्द गब्बर सिंह को पकड़वाने का आदेश दिया। काटजू पर बहुत ज्यादा दबाव आ गया था। उन्होंने स्पेशल टास्क फोर्स का गठन किया और आईजी के एफ रुस्तम से कहा, “मुझे गब्बर सिंह चाहिए जिंदा या मुर्दा।” शोले फिल्म में संजीव कुमार जो डायलॉग बोलते हैं, असल में वो डायलॉग पहली बार एमपी के सीएम के मुंह से निकला था।

*गब्बर अपनी गैंग के लड़कों से पूछता, “सरकार मुझ पर कितना इनाम रखे है?”*

गब्बर सिंह को पकड़ने का दबाव इतना ज्यादा था कि सीएम काटजू ने उस पर 50 हजार इनाम रख दिया। उस समय गब्बर इकलौता ऐसा डाकू था जिसके ऊपर इतना ज्यादा इनाम रखा गया था। इसके बाद गब्बर सिंह अपनी गैंग के लड़कों से यही इनाम वाला सवाल पूछता था।
असल गब्बर सिंह की मौत के 16 साल बाद शोले फिल्म में इस डायलॉग का इस्तेमाल किया गया। हालांकि, कुछ महीनों बाद ये इनाम बढ़कर 1 लाख 10 हजार हो गया था। मध्य प्रदेश के अलावा राजस्थान सरकार ने गब्बर पर 50 हजार का इनाम रखा था और उत्तर प्रदेश सरकार ने भी 10 हजार का इनाम रखा था।

*3 साल तक एक भी मुखबिर नहीं मिला, फिर एक घटना ने पूरे गांव को मुखबिर बना दिया*

सीएम के आदेश के बाद एसटीएफ की टीम ने बीहड़ में डेरा डाल दिया। इस टीम को 26 साल के डीएसपी राजेंद्र प्रसाद मोदी लीड कर रहे थे। टीम लगातार 3 सालों तक कोशिश करती रही, लेकिन गब्बर की कोई खबर नहीं लगी। दरअसल, कोई भी उसके खिलाफ बोलने को तैयार नहीं था। कोई गब्बर की खबर देता भी था तो वो गलत निकलती थी।

एक दिन अचानक भिंड के पास एक गांव के कुछ घरों में आग लग जाती है। सभी लोग भाग कर सुरक्षित हो जाते हैं, लेकिन एक घर के अंदर एक छोटा सा बच्चा फंस जाता है। आग इतनी तेज थी कि कोई भी अंदर जाने की हिम्मत नहीं कर पाया। तभी वहां डीएसपी मोदी पहुंच जाते हैं और अपनी जान पर खेल कर उस बच्चे को बचा लाते हैं।

गांव वालों के दिल में डीएसपी मोदी के लिए इज्जत बढ़ जाती है। वहां से लौटते वक्त डीएसपी मोदी सबसे रिक्वेस्ट करते हैं कि गब्बर सिंह की खबर लगे तो हमें जरूर बताना। डीएसपी की बहादुरी देख गांव वालों के मन का डर खत्म होता है और वो गब्बर की खबर देने को तैयार हो जाते हैं।आईजी मुठभेड़ में गब्बर का जबड़ा फटा फिर आई ने सीने में गोलियां उतार दीं

उसी वक्त मध्य प्रदेश के आईजी केएफ रुस्तम इस पूरे ऑपरेशन पर गहराई से नजर बना कर रखे हुए थे। कुछ दिनों बाद जिस बच्चे की जान डीएसपी मोदी ने बचाई थी उसी बच्चे का बाप मोदी को जानकारी देता है, “आज गब्बर हाईवे से गुजरने वाला है।”
13 नवंबर, 1959 को आईजी केएफ रुस्तम समेत डीएसपी मोदी और पूरी एसटीएफ टीम छिप कर हाईवे पर तैनात हो जाती है। जैस ही गब्बर वहां से निकलता है पुलिस गोलियां बरसाना शुरू कर देती है। गब्बर की गैंग किसी तरह छुपने का एक अड्डा तलाशती है और पुलिस पर फायरिंग शुरू कर देती है।
डीएसपी मोदी बिना डरे आगे बढ़ते जाते हैं। गब्बर छुप कर फायरिंग कर रहा होता है। मोदी उस पर बैक टु बैक 2 ग्रेनेड फेकते हैं। ग्रेनेड के फटने से गब्बर का जबड़ा फट जाता है। फिर आईजी रुस्तम उसके करीब जाकर उसको गोलियों से भून देते हैं। इस मुठभेड़ में गब्बर समेत उसकी गैंग के 9 डाकू मारे जाते हैं।

*आईजी ने जवाहर लाल नेहरू को बर्थडे गिफ्ट दिया*

गब्बर के खात्मे के बाद आईजी रुस्तम ने पहले एमपी के सीएम को ये खबर देते हैं फिर अगले ही दिन सीधे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को फोन घुमा देते हैं। 14 नवंबर को नेहरू जी का बर्थडे भी था। मौके का फायदा उठाते हुए रुस्तम उनसे कहते हैं, “प्रधानमंत्री जी हैप्पी बर्थडे। गब्बर मारा गया ये हमारी तरफ से आपको जन्मदिन का तोहफा समझिए।” नेहरू जी खुश हो जाते हैं।

दरअसल, आईजी रुस्तम मध्य प्रदेश आने से पहले 6 साल तक नेहरू जी की सुरक्षा में तैनात रह चुके थे, इसलिए दोनों एक दूसरे को करीब से जानते थे। उस समय उन्हें पद्म विभूषण अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया था। उस समय पद्म विभूषण पाने वाले आईजी रुस्तम इकलौते पुलिसवाले थे।

*गब्बर के जीवन पर किताब भी लिखी जा चुकी है*

मध्य प्रदेश के आईजी रुस्तम जो इस पूरे घटनाक्रम में मुख्य रूप से शामिल थे, उन्हें डायरी लिखने का भी शौक था। उन्होंने गब्बर के केस से जुड़ी एक-एक बात अपनी डायरी में लिख रखी थी। बाद में आईपीएस पीवी राजगोपाल ने उस डायरी पर एक किताब लिखी, जिसका नाम था- ‘द ब्रिटिश, द बैंडिट्स एंड द बॉर्डरमैन।’

*शोले फिल्म में कैसे आया गब्बर?*

शोले फिल्म 15 अगस्त, 1975 को रिलीज हुई थी। इस फिल्म में गब्बर सिंह का जो किरदार अभिनेता अमजद खान ने निभाया था। भले ही वो सीधेतौर पर असल गब्बर सिंह पर आधारित नहीं था, लेकिन काफी हद तक उससे ही इंस्पायर्ड था।

दरअसल, ये फिल्म सलीम-जावेद ने लिखी थी। सलमान खान के पिता सलीम इंदौर के थे। जब असल गब्बर सिंह का आतंक जोरों पर था तब सलमान के दादा यानी सलीम के पिता डीएसपी थे। उनके घर पर अक्सर गब्बर सिंह की चर्चाएं होती रहती थीं। कहीं न कहीं सलीम के दिमाग में डाकू का ये कैरेक्टर वहीं से आया था।
शोले फिल्म में जो हीरोइन थीं- जया भादुड़ी। जया के पिता तरुण कुमार भादुड़ी असल गब्बर सिंह के समय सांसद और पत्रकार थे। उन्होंने गब्बर सिंह को लेकर कवरेज भी की थी। बेटी की फिल्म शोले में उन्होंने करीब से हिस्सेदारी निभाई थी और गब्बर सिंह के बारे में कई बातें भी बताई थीं। जैसे वो डायलॉग “मुझे गब्बर सिंह चाहिए जिंदा या मुर्दा। ये लाइन एमपी के सीएम ने बोली थी। जया भादुड़ी के पिता ने ये डायलॉग संजीव कुमार को दिया था जो संजीव को बेहद पसंद भी आया था।

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