*राम नाम के प्रेमी भक्त श्रीपद्मनाभजी* 🙏🏻🌹
नाम महानिधि मंत्र, नाम ही सेवा-पूजा।
जप तप तीरथ नाम, नाम बिन और न दूजा॥
नाम प्रीति नाम वैर नाम कहि नामी बोलें।
नाम अजामिल साखि नाम बंधन ते खोलें॥
नाम अधिक रघुनाथ ते राम निकट हनुमत कह्यो।
कबीर कृपा ते परम तत्त्व पद्मनाभ परचो लह्यो॥
श्री पद्मनाभजी के मत मे श्रीराम-नाम की महानिधि ही सबसे बड़ा मंत्र है। नाम-जप को ही पद्मनाभजी भगवान की सच्ची सेवा-पूजा मानते थे। इनके लिए राम का नाम ही जप-तप और सब तीर्थों का तीर्थ था। नाम के अतिरिक्त अन्य किसी तत्व या साधन को स्वीकार करना इन्हें नहीं रुचता था। राम नाम का उच्चारण करने वालों से ये प्रेम करते थे और नाम के विरोधियों को अपना शत्रु कहकर पुकारते थे। नामी अर्थात् श्रीरामचन्द्र जी की उपासना भी ये नाम के रूप में करते थे। नाम के प्रभाव का सबसे बड़ा प्रमाण अजामिल हैं। जो पुत्र के नाम के बहाने से ‘नारायण’ नाम लेकर तर गया। राम का नाम संसार के सब बन्धनों से जीव को छुड़ा देता है। श्रीहनुमानजी ने भी प्रभु श्रीरामचन्द्रजी से कहा था- “हे प्रभो! आपका नाम आपसे भी बड़ा है।” अपने गुरु श्री कबीरदास जी की कृपा से श्रीपद्मनाभ जी को राम-नाम के प्रभाव का प्रत्यक्ष परिचय मिला ।
पद्मनाभजी कबीर के शिष्य कैसे हुए, इस संबंध में ‘भक्तदास गुण चित्रणी’ के आधार पर निम्नलिखित वार्ता ज्ञातव्य है–
पद्मनाभजी महान् दिग्विजयी पंडित थे। दिग्विजय प्रसंग में वे जब काशी पहुंचे, तो इन्होनें वहां के विद्वानों को शास्त्रार्थ के लिये ललकारा। काशी के पंडितों ने श्रीपद्मनाभजी की ख्याति सुन रखी थी अतः उन्होंने स्वयं शास्त्रार्थ न कर इन्हें कबीरदास जी के पास भेज दिया। कबीरजी के पास पहुँच कर पद्मनाभजी ने कहा कि काशी के पंडितो ने मुझे आपके पास शास्त्रचर्चा करने के लिए भेजा है और आपकी विद्वत्ता की बड़ी प्रशंसा की है। कबीरदास जी सुनकर हँसते हुए बोले “पंडितों ने उपहास किया है; मैं धर्म के बारे में भला क्या जानू? फिर भी आपकी यह बड़ी कृपा है, जो आपने मुझे दर्शन दिया। फिर हम तो आपको अपने से भिन्न मानते ही नहीं। शास्त्रार्थ का, इसलिए कोई प्रश्न ही नहीं उठता।” इस पर पद्मनाभजी ने कहा “अभिन्न मानने से क्या हुआ ? उपासना तो न्यारी न्यारी है”। कबीरदास जी ने समझाया, “उपासना न्यारी तो अवश्य है, पर प्राप्य भिन्न नहीं है। जैसे एक गन्तव्य स्थान पर जाने के विभिन्न मार्ग हो सकते हैं, उसी प्रकार एक सर्वशक्तिमान सर्वलोकनियंता आनंदस्वरूप प्रभु को प्राप्त करने की विभिन्न प्रणालियों के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए।इन सब उपासना -प्रणालियों में भी भगवन्नाम का स्मरण और उच्चारण ही सर्वश्रेष्ठ है। बिना ‘राम’ नाम के जितने भी अन्य विधि-विधान और क्रिया-कर्म है, वे व्यर्थ हैं।” पद्मनाभजी ने पूछा “इसका प्रमाण?” कबीरदास जी ने कहा “कल सुबह आ जाइए।”
जब श्रीपद्मनाभजी चले गए तो कबीरदास जी ने अपने एक शिष्य को बुलाया और उससे बोले “सुनो, जब कभी तुमको ये पद्मनाभ मिलें तो इनसे पांच-सात बार ‘राम-राम’ कर लेना।”
प्रसंगवश मार्ग में जाते समय शिष्य को पद्मनाभ दिखाई दे गए और उसने पाँच-सात बार ‘राम-राम’ भी कह दिया। सुनकर पद्मनाभ खीज उठे और अपने-आपको राम नाम श्रवण से अपवित्र मानकर गंगा स्नान करने चले गए।
दूसरा दिन हुआ तो वे नित्य की भांति हवनादि के लिए मन्त्र-बल से अग्नि प्रज्वलित करने लगे; किन्तु उस दिन एक चिंगारी भी न निकली और कबीरदास जी के पास जाने का समय हो जाने के कारण बिना प्रातःकालीन कर्मानुष्ठान किए ही वहाँ पहुँच गए। अग्नि प्रज्वलित न होने के कारण एक विशेष प्रकार की उदासी उनके मुख पर छाई थी। आते ही कबीरदास जी ने प्रश्न किया- “यह उदासी कैसी ?” पद्मनाभजी ने सब बात कह सुनाई। इस पर कबीरदास जी बोले– तुम्हारा धर्म भंग हो गया है। कही तुमने रामनाम को अवज्ञा तो नहीं कर दी ?”
पद्मनाभ जी इस पर कुछ क्षण सोचकर बोले “हां, यह तो हो गया है। कल एक व्यक्ति के राम-नामोच्चारण करने पर मैंने घृणा से मुंह फेर लिया और अपने आपको अपवित्र समझकर तुरन्त ही स्नान किया।”
कबीरदास जी ने कहा “यही तुमसे बड़ा भारी अपराध बन गया है। जरा धर्मग्रन्थों को खोलकर तो देखो कि उनमें राम-नाम की क्या महिमा बताई गई है ?
अब पद्मनाभ को नाम के वास्तविक महत्त्व का पता चला। वे कबीर के चरणों में गिर पड़े और उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। तभी से पद्मनाभजी भी रामनाम की महिमा का प्रचार करने लगे।
एक बार काशीपुरी में रहने वाला कोई सेठ कोड़ी हो गया। उसका जीवन दूभर हो गया था, क्योंकि शरीर में कीड़े पड़ जाने के कारण रात-दिन चैन नहीं पड़ता था। निदान अपने प्राणों का अन्त कर देने के लिए उसने गङ्गाजी की शरण लेना निश्चित किया और घर के सभी लोगों पर यह बात प्रकट कर दी। जब वह गङ्गाजी पर गया, तो लोगों की भीड़ उसके साथ हो ली। गंगा किनारे पहुँच कर घरवालों ने उसकी इच्छा से उसे रस्सी से कस दिया और शरीर से एक भारी पत्थर बांध दिया। इसी बीच में संयोग से पद्मनाभजी वहा से निकले और लोगों से पूछा कि यह क्या कर रहे हो? घरवालों ने सारा हाल बता दिया। इस पर श्रीपद्मनाभजी ने कहा “इसके शरीर के बन्धन खोल दो। यदि यह कोड़ी गङ्गाजी में स्नान कर तीन बार रामनाम का उच्चारण करे, तो इसका शरीर फिर से नया हो जायगा।”
श्रीपद्मनाभजी की आज्ञानुसार गङ्गा-स्नान कर ज्योंही सेठ ने तीन बार राम का नाम लिया त्यों ही उसका कुष्ठ जाता रहा और शरीर सुवर्ण के समान दिव्य हो गया। रामनाम की ऐसी अलौकिक महिमा देखकर सेठ की बुद्धि रामनाम के जप में लग गई।
श्रीपद्मनाभजी ने अपने गुरु श्रीकबीरदास जी के पास जाकर जब यह सब वृत्तांत सुनाया, तो उन्होंने कहा “तुमने रामनाम का प्रभाव अभी तक पूर्ण रूप से नहीं जाना है। ‘राम’ का पूरा नाम उच्चारण करना तो दूर रहा, यदि उस नाम का आभास— विकृतरूप– भी मुंह से निकल जाय, तो जीव की गति हो जाती है।