संत तुकाराम 🙏🏻🌹
विक्रम की सत्रहवीं सदी के महाराष्ट्र ने संत एकनाथ, समर्थ रामदास और संत तुकाराम के रूप में भारतीय इतिहास को परम पवित्र देन से समलंकृत किया है। तुकाराम महाराज ने अपनी वाणी से महाराष्ट्र में विट्ठल की भक्ति की गंगा प्रवाहित कर दी। उन्होंने संत साहित्य की समृद्धि मे महान योगदान दिया।
जिस समय महाराष्ट्र में ही नही, सम्पूर्ण भारत-भूमि में परधर्मियो द्वारा देवमंदिर विध्वंस और नष्ट किये जा रहे थे, संस्कृति और धर्म पर बड़ी-बड़ी विपत्ति पड़ने की आशंका थी, उस समय तुकाराम महाराज और स्वामी समर्थ रामदास ने जन्म लेकर भारतीय अध्यात्म क्षेत्र को, ज्ञानेश्वर, नामदेव और एकनाथ के परम पवित्र महाराष्ट्र को, राजसिंह के चित्तोड़ और शिवाजी के सिंहगढ़ को तथा गोविंद सिंह के पंजाब को राष्ट्रीय चेतना से जागृत किया। तुकाराम महाराज की भगवद्भक्ति का केंद्र पण्ढरपुर था, उन्होंने विट्ठल की कृपा से आत्मज्योति प्राप्त की। विदेशियों के आतंक से पीड़ित देश को आश्वासन प्रदान करने में मध्यकाल में संत शिरोमणि तुलसीदास, समर्थ स्वामी संत रामदास और तुकाराम महाराज अग्रगण्य स्वीकार किये जा सकते है। तुकाराम महाराज ने गृहस्थ के वेष में रह कर भी संत-जगत में जो नाम कमाया वह नितांत मौलिक और अनुपम माना जा सकता है। उनके वैराग्यपूर्ण तपोमय जीवन की मराठी वाङ्मय के नाभादास संत महीपति ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। उनका काव्य भागवत प्रेम का पूर्ण प्रतीक है, वे रहस्यवादी संत थे, उनकी रचना में उच्चकोटि के रहस्यपरक साहित्य का दर्शन होता है। प्राणिमात्र को भगवान की भक्ति करने का अधिकार है― उन्होंने ऐसी घोषणा कर शुद्ध भागवत धर्म का प्रचार किया, तत्कालीन संतो द्वारा प्रवर्तित इस प्रकार का धर्म भागवत धर्म कहलाता है। संत तुकाराम का भागवत धर्म सब जातियों के लिये था, उसमे वर्णाश्रम-विचार की ओर दृष्टिपात नही किया गया। समस्त वर्णो को भगवत्सेवा का अधिकार है―इस तथ्य को मान्यता दी गयी। तुकाराम ने अपने भागवत धर्म का मूल आधार भगवन्नाम संकीर्तन घोषित किया। उन्होंने कहा–
पवित्र ते कुल पावन तो देश।
जेथें हरिचे दास जन्म घेती।।
‘वह कुल पवित्र है, देश पावन है जिसमे हरि के दास उत्पन्न होते है।’ उन्होंने अपने भागवत धर्म को निर्गुण और सगुण, ब्रह्मवेदांत सवेद्य और भजन द्वारा उपास्य भगवान के समन्वय से सरस बनाया। उन्होंने कहा कि निर्गुण ब्रह्म की ही लीलारस के आस्वादन के लिये सगुण रूप में अभिव्यक्ति होती है। उन्होंने आजीवन भगवान के मधुर नाम का कीर्तन किया।
आलन्दी से छः कोस की दूरी पर पूना के निकट भगवती इंद्रायणी के तट पर परम पुनीत देहू ग्राम में संवत 1665 वि. में एक भागवत कुल में तुकारामजी महाराज का जन्म हुआ था। उनके पूर्वज बड़े भगवद्भक्त थे, विट्ठल की उनके कुल पर बड़ी कृपा थी। उनके एक पूर्वज विश्वम्भर की भक्ति से प्रसन्न होकर विट्ठल ने देहू के निकट ही अम्बिका वन में उन्हें अपनी उपस्थिति से धन्य किया था। तुकाराम के माता-पिता भी विट्ठल के बड़े भक्त थे। उनके पिता बहेबा (बोल्होबा) और माता कनकाबाई दोनो बड़े संतोष से गृहस्थी के कार्य मे रत थे। तुकाराम जी के बड़े भाई का नाम सावजी था। वे स्वभाव से ही विरक्त थे, विवाह होने के कुछ ही दिनों के बाद उन्होंने वैराग्य ले लिया, छोटे भाई का नाम कान्हजी था। पिता वैश्य का काम करते थे। व्यापार से ही परिवार की जीविका चलती थी। पिता के काम मे तुकाराम सहायता करते रहते थे।
जब तुकाराम तेरह साल के हुए, उनका विवाह रखुमाई नाम की कन्या से कर दिया गया पर यह जान कर कि उसे दमे का बीमारी है, पिता ने उसका दूसरा विवाह जिजाबाई से कर दिया। गृहस्थी विधिपूर्वक चलने लगी। पिता बूढ़े हो चले थे इसलिये उन्होंने कामकाज तुकाराम के हाथ मे सौंप दिया। बड़े भाई की काम मे तनिक भी रुचि नही थी, पूरे परिवार के पालन-पौषण का भार तुकाराम जी के ही कन्धों पर आ पड़ा। थोड़े समय के बाद माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। तुकारामजी के बड़े भाई सावजी की स्त्री का देहांत हो गया तो सावजी तीर्थयात्रा के लिये निकल गये। तुकाराम असहाय हो गये पर विट्ठल की कृपा से उन्होंने साहस से काम लिया और अपने कर्तव्य पर दृढ़ रहे।
भगवान जिन्हें अपनी भक्ति प्रदान करते है उनकी गृहस्थी पर चोट आती है। तुकाराम जी महाराज को भी अनेक विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ा पर उनकी विट्ठल-निष्ठा में किसी प्रकार की भी कमी न आ सकी। तुकाराम की दुकानदारी दिन-प्रति-दिन गिरने लगी। उन्होंने धन कमाने की चेष्टा की पर सदा ही असफलता हाथ लगी। गृहस्थी उनके लिये भयंकर नरक के रूप में परिणत हो गयी। उनकी पहली स्त्री सुशील थी पर दूसरी तो रह-रह कर काटती रहती थी। इस प्रकार गृह की अस्तव्यस्तता और पारिवारिक संकट तथा आर्थिक हानि में ही उनके दिन बीतने लगे। एक बार कुछ आत्मीयों और सम्बन्धियो की सहायता से उन्होंने कुछ रुपये लेकर मिर्ची खरीदकर कोंकण में बेची, परन्तु ठगों ने रुपए ले लिए। वे इतने सरल थे कि लोगो के भुलावे में आसानी से आ जाते थे। कोंकण से घर लौटते समय महाराज को एक ठग ने पीतल के कड़े दिखाये, उन पर सोने का पानी चढ़ाया गया था। महाराज ने सब रुपये उसे दे दिये, पीतल के कड़े लेकर घर गये। इस प्रकार अभाग्य ने उनका पीछा किया पर वे कभी हतोत्साह न हुए।
महाराज अमित क्षमाशील थे। एक बार घर मे कुछ खाने को नही था। खेत मे गन्ने थे। तुकाराम महाराज गन्ने का बोझ सिर पर रख कर घर आ रहे थे। रास्ते मे मांगने वालों ने गन्ने मांग लिये। केवल एक गन्ना लेकर घर आये। उनकी पत्नी भूखी थी। वह क्रोध में महाराज पर टूट पड़ी। उनकी पीठ की उसने उसी गन्ने से मरम्मत की। गन्ना टूट गया। महाराज ने तनिक भी क्रोध नही किया। केवल इतना ही कहा कि तुमने गन्ने के दो टुकड़े कर मेरा काम हल्का कर दिया, नही तो तुम्हारे और अपने चूसने के लिये मुझे इसके टुकड़े करने ही पड़ते।
महाराज का गृहस्थ जीवन उदार, सात्विक और दयापूर्ण था। एक बार उनकी पत्नी जिजाबाई ने व्यापार के लिये दो सौ रुपयों का प्रबन्ध किया। महाराज ने नमक खरीद कर ढाई सौ रुपये कमाये पर बालीघाट से घर आते समय रास्ते में एक गरीब के मांगने पर उन्होंने सहायतार्थस्वरूप सारे रुपये दे डाले। उन दिनों भीषण अकाल पड़ा हुआ था, लोग दाने-दाने के लिये मर रहे थे। इस परिस्थिति में भी महाराज ने रुपयों का लोभ नही किया। इसी बीच मे उनकी पहली पत्नी का स्वर्गवास हो गया, बेटा भी चल बसा पर महाराज तुकाराम भगवान के भरोसे दृढ़ रहे। वे संकट में अचल रहे।
इस समय तुकाराम की अवस्था लगभग बीस साल की थी। तुकाराम महाराज ने वैराग्य के निष्कंटक राज्य में प्रवेश किया। उन्होंने तपस्या आरम्भ की, घर-गृहस्थी के विनश्वर रूप के प्रति वे अनासक्त हो गये। महाराज ने अपने पिता के जीवन काल मे लिखे गये रुपयों के रुक्के एकत्र किये, उनमे से आधे उन्होंने अपने छोटे भाई को दे दिये और शेष इन्द्रायणी में प्रवाहित कर दिये। महाराज का मन घर पर नही लगता था इसलिये वे एकान्त-सेवन के लिये कभी भागनाथ पर्वत तो कभी भण्डार के पर्वत पर जाकर भगवान विट्ठल का स्मरण किया करते थे। उनकी पत्नी ठीक समय पर भोजन आदि की व्यवस्था कर दिया करती थीं। महाराज ने स्वयं अपने ही हाथ से अपने पूर्वज विश्वम्भर द्वारा निर्मित विट्ठल मन्दिर का जीर्णोद्धार किया, इस कार्य मे भगवत्प्रेरणा से उन्हें महादजी नामक एक सज्जन ने सहायता दी थी। महाराज आषाढ़ और कार्तिक की एकादशी को पण्ढरीनाथ के दर्शन के लिये पण्ढरपुर जाया करते थे। एकादशी व्रत और विट्ठल के मधुर नाम-उच्चारण में उनकी बड़ी निष्ठा थी। तप के फलस्वरूप भगवान की कृपा से उन्हें काव्य-स्फूर्ति प्राप्त हुई। इस घटना के संबंध में एक उल्लेख है। तुकाराम महाराज को विट्ठल ने संत नामदेव के साथ स्वप्न में दर्शन दिया। भगवान ने आदेश दिया कि नामदेव ने मेरी स्तुति में असंख्य पद रचे है, जो शेष रह गये हो उनकी पूर्ति तुम करो। तुकाराम ने भगवान के आदेश का पालन किया। तुकारामजी ने अपने अभंगो में बड़ी श्रद्धा से इस स्वप्न का विवरण दिया है। बड़े-बड़े संत महात्मा उनकी भागवत काव्य-शक्ति के चरणों पर नत हो गये। उनकी कीर्ति शरदपूर्णिमा के समान परम दिव्य हो उठी।
तुकाराम भगवान के अनन्य भक्त थे और पण्ढरीनाथ विट्ठल भी उनके प्रति विशेषरूप से अनुरक्त थे। उन्होंने भगवान के आदेश के अनुसार अभांगो की रचना अत्यंत ललित मराठी-भाषा मे आरम्भ की, उनमे श्रुति का सार भरा रहता था, वैदिक रहस्य का माधुर्य विलास करता था। भक्ति पक्ष पर विशेष जोर था। ज्ञान और कर्म-काण्ड की महत्ता का नाममात्र विवरण भी उन अभंगों में न था। पूना से नौ मील की दूरी पर वाघोली ग्राम में रामेश्वर भट्ट नाम के एक शास्त्रज्ञ कर्मकाण्डी ब्राह्मण रहते थे। उन्होंने मराठी भाषा मे रचे गये अभांगों की उपेक्षा की और कहा कि इस प्रकार की रचना से देववाणी और शास्त्रज्ञान का अपमान होता है पर आश्चर्य तो यह था कि चारो वर्ण के लोग तुकाराम महाराज के अभंगो को गाते-फिरते थे। रामेश्वर भट्ट के लिये यह बात असहय थी। उन्होंने देहू के राजाधिकारी से प्रार्थना की कि तुकाराम को देहू से निष्कासित कर दिया जाय। तुकाराम तो दैन्य की मूर्ति थे। वे रामेश्वर भट्ट से मिलने गये। उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा कि महाराज मैं तो विट्ठल की ही प्रेरणा से मराठी में अभंगो की रचना करता हूँ पर यदि आप जैसे महान वेदज्ञ की सम्मति नही है तो मैं रचना नही करूँगा पर इतना बता दीजिये कि जो अभंग अब तक रचे गए है, उनके संबंध में क्या करूँ। भट्ट ने कहा कि उन्हें इन्द्रायणी की धारा में डूबा दीजिये, यदि भगवान की कृपा से वे तेंरह दिन के बाद सुरक्षित मिल जायेंगे तो मैं मान्यता प्रदान कर दूंगा। संत तुकाराम ने भट्ट की आज्ञा का पालन किया पर अभंगो को इस प्रकार इन्द्रायणी में प्रवाहित कर देने पर उन्हें बड़ा दुःख हुआ। वे मंदिर के प्रमुख द्वार पर बिना अन्न जल ग्रहण किये पड़े रहे। भगवान के भक्तों का विनाश असंभव है, उनकी कीर्ति अमर और अटल है। विट्ठल ने देहू ग्राम के निवासियों को स्वप्न में आदेश दिया कि तुकाराम के अभंग इन्द्रायणी के धरातल पर सुरक्षित है, उन्हें लाकर तुकाराम को दे दो। इधर तेंरहवे दिन प्रभु ने बालरूप में तुकाराम को अपने दर्शन से धन्य किया और अभंगो के सुरक्षित होने की बात बतायीं। रामेश्वर, तुकाराम के चरणों मे गिर पड़े, महाराज तुकारामजी ने प्रेम से उनका आलिंगन किया, रामेश्वर ने कहा कि मैं शुद्र हूँ, मुझे अपने चरणों की धूलि लेने दीजिये। रामेश्वर भट्ट तुकाराम महाराज के शिष्य हो गये। उनकी एक स्थल पर उक्ति है।
‘ऊँच नीच वर्णन म्हणावा कोणी। जेका नारायणी प्रिय झाले।।
चहूवर्णासी हा असे अधिकार। करिता नमस्कार दोष नाही।।’
‘जो नारायण के प्रिय पात्र है उनके उत्तम-कनिष्ठ वर्ण के विचार का कुछ भी महत्व नही है। चारो वर्णो का यह अधिकार है, उन्हें नमस्कार करने में तनिक भी दोष नही है।’ रामेश्वर भट्ट की गणना महाराज के प्रधान शिष्यों में है।
महाराज के जीवन-चरित्र में अनेक विचित्र घटनाओ का उल्लेख पाया जाता है…। एक बार वे मंदिर में भगवन्नाम का कीर्तन कर रहे थे। एक ताम्रकार-ठठेर भी उनके कीर्तन में सम्मिलित हुआ। ठठेर की स्त्री ने उसे कीर्तन में जाने से रोका पर उसने स्त्री की बात न मानी। ठठेर का छोटा बच्चा इसी बीच मर गया। उसकी पत्नी ने मृत बच्चे को कीर्तन के मध्य में रख दिया। उसने तुकाराम से कहा कि महाराज आप ने तो मेरा घर ही उजाड़ दिया, हरि का नाम हमारे परिवार के लिये लाभदायक नही सिद्ध हुआ। महाराज ने कहा कि हरि का नाम तो अमृत से भी बढ़ कर लाभदायक है। वे ‘विट्ठल-विट्ठल’ कह कर कीर्तन करने लगे। श्रोताओ ने भी जोर-जोर से कीर्तन करना आरंभ कर दिया। हरिनाम के प्रताप से बच्चा जी उठा। कीर्तन-मंडली में प्रसन्नता छा गयी, चारो ओर तुकारामजी की जयध्वनि सुनाई पड़ने लगी।
एक बार एक वेदान्ती ने महाराज तुकाराम को वेदान्तपरक नया रचा हुआ ग्रंथ सुनना चाहा, पहले तो महाराज ने बड़ी चेष्टा की कि किसी प्रकार पीछा छूटे पर अंत मे वेदान्ती ने पड़ना आरम्भ किया। महाराज ने सिर से पैर तक समस्त शरीर कम्बल से ढक लिया। वे भगवान का स्मरण करने लगे। वेदान्ती को बड़ा आश्चर्य हुआ कि महाराज कुछ बोल ही नही रहे है। उसने कम्बल खिंचा और देखा कि महाराज दोनो कानो पर हाथ रख कर ध्यानस्थ है। महाराज ने कहा कि ब्रह्म-ज्ञान होना एक बात है और ब्रह्म की शक्ति को पाना दूसरी बात है, मनुष्य ब्रह्म-ज्ञानी हो सकता है पर वह ब्रह्म के समान शक्तिशाली नही हो सकता, इसलिये भक्ति का पथ ही वरणीय है। भगवान की भक्ति ही श्रेयस्कर है, उसी की प्राप्ति के लिये ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये। भगवान की कृपा से ही भक्ति मिलती है।
प्रभु अपने भक्तों के यश-विस्तार के लिये लीला किया करते है। एक बार की घटना है। तुकाराम महाराज उन दिनों कठिन तप कर रहे थे, उनकी पत्नी उनकी भक्ति से वश में हो गयी थी, वह तुकाराम महाराज की आज्ञा के अनुसार सारे कार्य करती थी। एक बार महाराज ने समझाया कि भगवान हम लोगों के योग-क्षेम का ध्यान रखते है, अपने पास जो कुछ भी हो, दीन-दुखियों की सेवा में लगा दो। पत्नी ने सब कुछ ब्राह्मणों और कंगालों को दे दिया। पहनने के लिये एक साड़ी ही रह गयी थी। महाराज से एक ब्राह्मणी ने साड़ी मांगी, पत्नी उस समय स्नान कर रही थी, तुकाराम ने साड़ी दे दी। बाद में पत्नी को बड़ा दुःख हुआ। उसने हाथ मे एक पत्थर का टुकड़ा ले लिया, वह मन्दिर में गयीं और भगवान के चरणों मे प्रहार करना चाहती थी, लीलापति थर-थर कांपने लगे। भक्त की पत्नी का कोप देख कर रुक्मिणी ने कहा कि भाग चलिये। विट्ठल ने कहा कि मेरे भागने से भक्ति की मर्यादा का लोप हो जायेगा, भक्त की साख मिट जायेगी। पत्नी ने यह घटना तुकारामजी को सुनाई तो वे प्रभु से क्षमा मांगने के लिये मंदिर के द्वार पर पहुँच गये। पत्नी मन्दिर में चली गयी, मन्दिर के पट अपने आप बन्द हो गये। तुकाराम बाहर ही खड़े रह गये, पश्चाताप करने लगे। इधर रुक्मिणी ने उनकी पत्नी को बहुत से रुपये दिये, पहनने का वस्त्र प्रदान किया। पट खुल गये। इस प्रकार विट्ठल देव ने तुकाराम महाराज की भक्ति और श्रद्धा का लीलापूर्वक रसास्वादन किया। भगवान सदा अपने भक्त का संरक्षण करते है।
छत्रपति शिवाजी महाराज उन दिनों स्वराज्य की संस्थापना में संलग्न थे, वे स्वधर्म और स्वराज्य का संरक्षण कर रहे थे। साधु-सन्तों में उनकी स्वाभाविक निष्ठा थी तुकाराम जी महाराज से वे बहुत प्रभावित थे। वे उनका दर्शन करने के लिये लोहगांव भी गये थे। उन्होंने तुकाराम जी महाराज को अपना गुरु बनाना चाहा पर संत तुकाराम ने समर्थ रामदास को गुरु बनाने की सम्मति दी। शिवाजी महाराज की बड़ी इच्छा थी कि एक बार महाराज उनकी राजसभा को अपनी उपस्थिति से पवित्र करे, उन्होंने महाराज को ठाट-बाट से लाने के लिए बहुत से सैनिक अधिकारी भेजे, उपहार में अनेक कीमती वस्तुएँ भेजी पर तुकाराम महाराज ने किसी भी दशा में जाना स्वीकार नही किया। उन्होंने शिवाजी को पत्र लिखा कि आप की राजसभा में उपस्थित होने से मेरा क्या लाभ है। भिक्षा ओर वस्त्र तो बहुत से मिल जाएंगे। शिलाखंड ही मेरा बिस्तरा है, आसमान मेरा ओढ़ना है। यदि आप की राजसभा में मुझे सम्मान मिलेगा तो क्या इससे शांति की प्राप्ति हो सकेगी। भिक्षुक होने में ही परमानंद है, तपस्या और त्याग से बढ़कर कीमती वस्तु संसार मे कुछ भी नही है। धनी तो वासना के बंधन में सदा दुःखी रहते है। भगवान के भक्त, राजाओ से कही अधिक भाग्यशाली होते है। आप असहायों की रक्षा कीजिये, सचराचर में परमात्मा का दर्शन कीजिये, समर्थ रामदास के चरण का आश्रय ग्रहण कीजिये, आप का जीवन पृथ्वी पर धन्य है। तुकाराम ने बताया–
‘आम्ही तेणें सुखी। म्हणा विट्ठल विट्ठल मुखी।।
कठी मिरवा तुलसी। व्रत करा एकादशी।।’
‘मुझे तो इसी में सुख है कि आप विट्ठल-विट्ठल कहिये, कंठ में तुलसी की माला धारण कीजिये और एकादशी व्रत का पालन कीजिये।’
एक बार पण्ढरपुर में संतो की बहुत बड़ी सभा हुई। देश के कोने-कोने से संतो और भक्तों का आगमन हुआ। सारा प्रबंध शिवाजी महाराज की ओर से था। शिवाजी इस सम्मेलन में स्वयं उपस्थित थे। समर्थ रामदास और तुकाराम ने अपने कथा-कीर्तन से इस सम्मेलन को सफल बनाकर भगवद्भक्ति का संदेश फैलाया।
एक बार एक मन्दिर में तुकाराम महाराज हरिकीर्तन कर रहे थे। दैव योग से शिवाजी महाराज इस समारोह में उपस्थित थे। शत्रुओ को उनकी उपस्थिति का पता चल गया पर वे कीर्तन से न उठे, उनका पूरा-पूरा विश्वास था कि सन्त तुकाराम की कृपा तथा भगवान की प्रसन्नता से उनका बाल भी बाका नही होगा। तुकाराम महाराज के कीर्तन-अमृत का परित्याग कर नश्वर देह को बचाने के लिये भागना उन्होंने उचित नही समझा। चाँदनी रात थी, हवा ठण्डी-ठण्डी चल रही थी। शत्रुओ को शिवाजी के रूपवाले सौ व्यक्ति दीख पड़े। भगवत्प्रेरणा से शत्रु जंगल की ओर भाग गये और कीर्तन अबाध गति से रातभर चलता रहा।
तुकाराम महाराज ने कहा कि उसका जीवन पृथ्वी पर सफल है जो अपनी वाणी का उपयोग भगवान के कीर्तन-भजन में करता है।
‘तुका म्हणे वाणी। सूखे वेचा नारायणी।’
सन्त तुकाराम ने तत्कालीन महाराष्ट्र को ही नही सम्पूर्ण भारतीय राष्ट्र को आत्मदर्शन-भगवद्दर्शन प्रदान किया। वे भक्त संत थे। संत तुकाराम का सबसे बड़ा काम यह था कि लोगो में उन्होंने भगवदविश्वास की ज्योति फैलाई, सगुण और निर्गुण ब्रह्म के चिंतन का समन्वयात्मक रूप प्रदान किया। उन्होंने गाँव-गाँव तथा नगर-नगर में घूम कर भगवन्नाम-संकीर्तन, भजन और हरिकथा का प्रचार किया। महाराज ने निर्मल ब्रह्म ज्ञान, शुद्ध भगवत्तत्व की खोज की। उन्होंने प्रण किया था कि भिखारी भले ही हो जाऊँ पर पण्ढ़री का वारकरी-भक्त वैष्णव बना रहूँगा। मुख में विट्ठल का नाम रहे, बस यही मेरा नियम है, धर्म है। विट्ठल ही मेरे भगवान है। महाराज की उक्ति है–
पण्ढ़रीची वारी आहे माझे घरी। आणिक न करी तीर्थव्रत।।
व्रत एकादशी करीन उपवासी। गाईन अहर्निशी मुखी नाम।।
‘पण्ढरी की यात्रा करने का नियम मेरे घर मे चला आया है, मैं वही करता हूँ, तीर्थव्रत मेरे लिये सब कुछ वही है। उपवासपूर्वक एकादशी करूँगा और रात-दिन मुख से भगवन्नाम का कीर्तन करूँगा।’ महाराज ने आजीवन इस उक्ति को जीवन मे चरितार्थ किया। तुकारामजी की भगवद्भक्ति उच्च कोटि की थी। तुकारामजी ने अपने ढंग से भगवान के स्वरूप का चिंतन किया। वे एक बार पण्ढरपुर नही जा सके। उन्होंने अभंग रच कर भक्तो को दे दिये। देहू के वारकरियों ने भीमा नदी में स्नान कर पाण्डुरंग के सम्मुख कीर्तन करना आरंभ किया। विट्ठल ने तुकाराम को पण्ढरी लेने के लिये गरुड़ भेजा पर महाराज में भगवान के वाहन पर बैठकर जाना अस्वीकार कर दिया। स्वयं विट्ठल ने रुक्मिणी सहित महाराज को देहू में दर्शन दिया, उन्होंने मोरमुकुट, मकराकृत कुंडल, पीताम्बर, कौस्तुभमणि, नूपुर आदि धारण किये थे। तुकाराम ने उनसे परम पद-अभय पद-भक्ति की ही याचना की। तुकाराम ने प्रेम स्वरूप भगवान की उपासना की। उनके भगवत्प्रेम का मूलाधार मानस-उपासना है। ह्रदय का उनके चरणों में समर्पण ही उच्च कोटि की भक्ति है― उनकी यह मान्यता थी।
भगवान भक्ति और प्रेम से ही प्रसन्न होते है―ऐसा उनका अटल विश्वास था। वे भगवान की कृपा शक्ति पर ही सदा निर्भर रहते थे। तुकाराम ने कहा कि कीर्तन से शरीर पवित्र होता है, भगवत्प्रेम की प्राप्ति होती है। उन्होंने कहा कि साधक में सद्भाव होना परम आवश्यक है, भगवान के संमुख भाव का ही बल चलता है। चित्त शुद्ध करके भावपूर्वक भगवान का भजन ही उच्च कोटि की साधना है। सन्त-चरण पर मस्तक नत करने से ईश्वर की प्राप्ति होती है। महाराज ने एक अभंग में कहा है– ‘भगवान स्वयं ही उचित और ठीक मार्ग दिखा देते है, वे दयालु है, हृदय में भाव होना चाहिये।’ तुकाराम महाराज ने अपनी विवशता के संबंध में कहा कि इतनी आयु नही है कि समस्त ग्रन्थ पढ़ सकू। विट्ठल सब कुछ कर देंगे। उनकी कृपा से जो ज्ञान प्राप्त होगा उसे हृदय में रख लूँगा।
महाराज ने स्पष्ट कहा कि मुझे आत्मस्थिति ब्रह्मज्ञान की आवश्यकता नही है। मैं तो सदा भक्त ही की स्थिति में भक्तिरस का आस्वादन करना चाहता हूँ। मुझे तो गोपिकारमन भगवान श्यामसुंदर के ही दर्शन की आवश्यकता है। तुकाराम महाराज ने एक अभंग में भगवान से आत्मनिवेदन किया कि मेरी जाति हीन है पर सन्तजन मेरी स्तुति करते है। मेरा अभिमान बढ़ रहा है, मेरा जीवन व्यर्थ होना चाहता है। प्रभु मेरी रक्षा कीजिये, नही तो में कही का भी नही रह जाऊँगा। महाराज ने सगुण-निर्गुण ब्रह्म के समन्वय-माध्यम से कहा–
‘सगुण निर्गुण जयाची ही अंगे।
तेचि आम्हा संगे क्रीड़ा करी।।’
‘सगुण-निर्गुण जिनके अंग है वे ही नारायण हमारे साथ क्रीड़ा किया करते है।’
भगवान की कृपा से उनको निर्मल सच्चिदानंद तत्व का बोध था।
तुकाराम महाराज ने सदा भगवत्तत्व की ही विवेचना की। जीवन को पूर्णरूप से भगवद्मय बनाना ही उनकी साधना का स्वरूप था। इस सम्बन्ध में उनके द्वारा रचे गये अभंग भक्ति-जगत ओर संत-साहित्य को बहुत बड़ी देन है उनका समस्त आचरण भगवान के चरणों पर समर्पित था, भागवतधर्म-वैष्णवधर्म के विस्तार में निस्सन्देश महाराज ने अद्भुत योग दिया। उनके अभंगो में प्रभु की कृपा और रूप-सौंदर्य माधुर्य का पुष्कल वर्णन मिलता है।महाराज की सन्त वचन और पुराणों में अमित आस्था थी। महाराज ने गुरु शिष्य के सम्बन्ध में एक अनोखी बात कही-
‘गुरु शिष्य पण। हे तों अधम लक्षण।।
भूति नारायण खरा। आप तैसाचि दूसरा।।’
‘गुरु बनना और चेला बनाना अधमता है। भूतमात्र में नारायण है―यह बात सच है, इसलिये हमारे और दूसरे में क्या अंतर हैं।’
महाराज तुकाराम गृहस्थ संत थे। अंत समय में उनके दो पुत्र महादेव और विठोबा तथा तीन कन्या काशी, भागीरथी और गंगा उपस्थित थे। सम्वत् 1706 वि. की चैत कृष्ण द्वितीया को तुकाराम महाराज ने सदेह स्वर्ग की यात्रा की, मयूर कवि की वाणी है कि जिस प्रकार भगवान राम सदेह स्वर्ग गये उसी प्रकार तुकाराम महाराज ने शरीर से ही वैकुंठ की यात्रा की। देहू में उनके अभंगो की पूजा होती है। उनके वैकुण्ठ-गमन के बाद शिवाजी देहू आये थे, उन्होंने चार गाँव जागीर के रूप में उनके वंशजो को प्रदान किये। संत तुकाराम संत, कवि और महान भक्त थे।
||जय शसंत तुकाराम 🙏🏻🌹
विक्रम की सत्रहवीं सदी के महाराष्ट्र ने संत एकनाथ, समर्थ रामदास और संत तुकाराम के रूप में भारतीय इतिहास को परम पवित्र देन से समलंकृत किया है। तुकाराम महाराज ने अपनी वाणी से महाराष्ट्र में विट्ठल की भक्ति की गंगा प्रवाहित कर दी। उन्होंने संत साहित्य की समृद्धि मे महान योगदान दिया।
जिस समय महाराष्ट्र में ही नही, सम्पूर्ण भारत-भूमि में परधर्मियो द्वारा देवमंदिर विध्वंस और नष्ट किये जा रहे थे, संस्कृति और धर्म पर बड़ी-बड़ी विपत्ति पड़ने की आशंका थी, उस समय तुकाराम महाराज और स्वामी समर्थ रामदास ने जन्म लेकर भारतीय अध्यात्म क्षेत्र को, ज्ञानेश्वर, नामदेव और एकनाथ के परम पवित्र महाराष्ट्र को, राजसिंह के चित्तोड़ और शिवाजी के सिंहगढ़ को तथा गोविंद सिंह के पंजाब को राष्ट्रीय चेतना से जागृत किया। तुकाराम महाराज की भगवद्भक्ति का केंद्र पण्ढरपुर था, उन्होंने विट्ठल की कृपा से आत्मज्योति प्राप्त की। विदेशियों के आतंक से पीड़ित देश को आश्वासन प्रदान करने में मध्यकाल में संत शिरोमणि तुलसीदास, समर्थ स्वामी संत रामदास और तुकाराम महाराज अग्रगण्य स्वीकार किये जा सकते है। तुकाराम महाराज ने गृहस्थ के वेष में रह कर भी संत-जगत में जो नाम कमाया वह नितांत मौलिक और अनुपम माना जा सकता है। उनके वैराग्यपूर्ण तपोमय जीवन की मराठी वाङ्मय के नाभादास संत महीपति ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। उनका काव्य भागवत प्रेम का पूर्ण प्रतीक है, वे रहस्यवादी संत थे, उनकी रचना में उच्चकोटि के रहस्यपरक साहित्य का दर्शन होता है। प्राणिमात्र को भगवान की भक्ति करने का अधिकार है― उन्होंने ऐसी घोषणा कर शुद्ध भागवत धर्म का प्रचार किया, तत्कालीन संतो द्वारा प्रवर्तित इस प्रकार का धर्म भागवत धर्म कहलाता है। संत तुकाराम का भागवत धर्म सब जातियों के लिये था, उसमे वर्णाश्रम-विचार की ओर दृष्टिपात नही किया गया। समस्त वर्णो को भगवत्सेवा का अधिकार है―इस तथ्य को मान्यता दी गयी। तुकाराम ने अपने भागवत धर्म का मूल आधार भगवन्नाम संकीर्तन घोषित किया। उन्होंने कहा–
पवित्र ते कुल पावन तो देश।
जेथें हरिचे दास जन्म घेती।।
‘वह कुल पवित्र है, देश पावन है जिसमे हरि के दास उत्पन्न होते है।’ उन्होंने अपने भागवत धर्म को निर्गुण और सगुण, ब्रह्मवेदांत सवेद्य और भजन द्वारा उपास्य भगवान के समन्वय से सरस बनाया। उन्होंने कहा कि निर्गुण ब्रह्म की ही लीलारस के आस्वादन के लिये सगुण रूप में अभिव्यक्ति होती है। उन्होंने आजीवन भगवान के मधुर नाम का कीर्तन किया।
आलन्दी से छः कोस की दूरी पर पूना के निकट भगवती इंद्रायणी के तट पर परम पुनीत देहू ग्राम में संवत 1665 वि. में एक भागवत कुल में तुकारामजी महाराज का जन्म हुआ था। उनके पूर्वज बड़े भगवद्भक्त थे, विट्ठल की उनके कुल पर बड़ी कृपा थी। उनके एक पूर्वज विश्वम्भर की भक्ति से प्रसन्न होकर विट्ठल ने देहू के निकट ही अम्बिका वन में उन्हें अपनी उपस्थिति से धन्य किया था। तुकाराम के माता-पिता भी विट्ठल के बड़े भक्त थे। उनके पिता बहेबा (बोल्होबा) और माता कनकाबाई दोनो बड़े संतोष से गृहस्थी के कार्य मे रत थे। तुकाराम जी के बड़े भाई का नाम सावजी था। वे स्वभाव से ही विरक्त थे, विवाह होने के कुछ ही दिनों के बाद उन्होंने वैराग्य ले लिया, छोटे भाई का नाम कान्हजी था। पिता वैश्य का काम करते थे। व्यापार से ही परिवार की जीविका चलती थी। पिता के काम मे तुकाराम सहायता करते रहते थे।
जब तुकाराम तेरह साल के हुए, उनका विवाह रखुमाई नाम की कन्या से कर दिया गया पर यह जान कर कि उसे दमे का बीमारी है, पिता ने उसका दूसरा विवाह जिजाबाई से कर दिया। गृहस्थी विधिपूर्वक चलने लगी। पिता बूढ़े हो चले थे इसलिये उन्होंने कामकाज तुकाराम के हाथ मे सौंप दिया। बड़े भाई की काम मे तनिक भी रुचि नही थी, पूरे परिवार के पालन-पौषण का भार तुकाराम जी के ही कन्धों पर आ पड़ा। थोड़े समय के बाद माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। तुकारामजी के बड़े भाई सावजी की स्त्री का देहांत हो गया तो सावजी तीर्थयात्रा के लिये निकल गये। तुकाराम असहाय हो गये पर विट्ठल की कृपा से उन्होंने साहस से काम लिया और अपने कर्तव्य पर दृढ़ रहे।
भगवान जिन्हें अपनी भक्ति प्रदान करते है उनकी गृहस्थी पर चोट आती है। तुकाराम जी महाराज को भी अनेक विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ा पर उनकी विट्ठल-निष्ठा में किसी प्रकार की भी कमी न आ सकी। तुकाराम की दुकानदारी दिन-प्रति-दिन गिरने लगी। उन्होंने धन कमाने की चेष्टा की पर सदा ही असफलता हाथ लगी। गृहस्थी उनके लिये भयंकर नरक के रूप में परिणत हो गयी। उनकी पहली स्त्री सुशील थी पर दूसरी तो रह-रह कर काटती रहती थी। इस प्रकार गृह की अस्तव्यस्तता और पारिवारिक संकट तथा आर्थिक हानि में ही उनके दिन बीतने लगे। एक बार कुछ आत्मीयों और सम्बन्धियो की सहायता से उन्होंने कुछ रुपये लेकर मिर्ची खरीदकर कोंकण में बेची, परन्तु ठगों ने रुपए ले लिए। वे इतने सरल थे कि लोगो के भुलावे में आसानी से आ जाते थे। कोंकण से घर लौटते समय महाराज को एक ठग ने पीतल के कड़े दिखाये, उन पर सोने का पानी चढ़ाया गया था। महाराज ने सब रुपये उसे दे दिये, पीतल के कड़े लेकर घर गये। इस प्रकार अभाग्य ने उनका पीछा किया पर वे कभी हतोत्साह न हुए।
महाराज अमित क्षमाशील थे। एक बार घर मे कुछ खाने को नही था। खेत मे गन्ने थे। तुकाराम महाराज गन्ने का बोझ सिर पर रख कर घर आ रहे थे। रास्ते मे मांगने वालों ने गन्ने मांग लिये। केवल एक गन्ना लेकर घर आये। उनकी पत्नी भूखी थी। वह क्रोध में महाराज पर टूट पड़ी। उनकी पीठ की उसने उसी गन्ने से मरम्मत की। गन्ना टूट गया। महाराज ने तनिक भी क्रोध नही किया। केवल इतना ही कहा कि तुमने गन्ने के दो टुकड़े कर मेरा काम हल्का कर दिया, नही तो तुम्हारे और अपने चूसने के लिये मुझे इसके टुकड़े करने ही पड़ते।
महाराज का गृहस्थ जीवन उदार, सात्विक और दयापूर्ण था। एक बार उनकी पत्नी जिजाबाई ने व्यापार के लिये दो सौ रुपयों का प्रबन्ध किया। महाराज ने नमक खरीद कर ढाई सौ रुपये कमाये पर बालीघाट से घर आते समय रास्ते में एक गरीब के मांगने पर उन्होंने सहायतार्थस्वरूप सारे रुपये दे डाले। उन दिनों भीषण अकाल पड़ा हुआ था, लोग दाने-दाने के लिये मर रहे थे। इस परिस्थिति में भी महाराज ने रुपयों का लोभ नही किया। इसी बीच मे उनकी पहली पत्नी का स्वर्गवास हो गया, बेटा भी चल बसा पर महाराज तुकाराम भगवान के भरोसे दृढ़ रहे। वे संकट में अचल रहे।
इस समय तुकाराम की अवस्था लगभग बीस साल की थी। तुकाराम महाराज ने वैराग्य के निष्कंटक राज्य में प्रवेश किया। उन्होंने तपस्या आरम्भ की, घर-गृहस्थी के विनश्वर रूप के प्रति वे अनासक्त हो गये। महाराज ने अपने पिता के जीवन काल मे लिखे गये रुपयों के रुक्के एकत्र किये, उनमे से आधे उन्होंने अपने छोटे भाई को दे दिये और शेष इन्द्रायणी में प्रवाहित कर दिये। महाराज का मन घर पर नही लगता था इसलिये वे एकान्त-सेवन के लिये कभी भागनाथ पर्वत तो कभी भण्डार के पर्वत पर जाकर भगवान विट्ठल का स्मरण किया करते थे। उनकी पत्नी ठीक समय पर भोजन आदि की व्यवस्था कर दिया करती थीं। महाराज ने स्वयं अपने ही हाथ से अपने पूर्वज विश्वम्भर द्वारा निर्मित विट्ठल मन्दिर का जीर्णोद्धार किया, इस कार्य मे भगवत्प्रेरणा से उन्हें महादजी नामक एक सज्जन ने सहायता दी थी। महाराज आषाढ़ और कार्तिक की एकादशी को पण्ढरीनाथ के दर्शन के लिये पण्ढरपुर जाया करते थे। एकादशी व्रत और विट्ठल के मधुर नाम-उच्चारण में उनकी बड़ी निष्ठा थी। तप के फलस्वरूप भगवान की कृपा से उन्हें काव्य-स्फूर्ति प्राप्त हुई। इस घटना के संबंध में एक उल्लेख है। तुकाराम महाराज को विट्ठल ने संत नामदेव के साथ स्वप्न में दर्शन दिया। भगवान ने आदेश दिया कि नामदेव ने मेरी स्तुति में असंख्य पद रचे है, जो शेष रह गये हो उनकी पूर्ति तुम करो। तुकाराम ने भगवान के आदेश का पालन किया। तुकारामजी ने अपने अभंगो में बड़ी श्रद्धा से इस स्वप्न का विवरण दिया है। बड़े-बड़े संत महात्मा उनकी भागवत काव्य-शक्ति के चरणों पर नत हो गये। उनकी कीर्ति शरदपूर्णिमा के समान परम दिव्य हो उठी।
तुकाराम भगवान के अनन्य भक्त थे और पण्ढरीनाथ विट्ठल भी उनके प्रति विशेषरूप से अनुरक्त थे। उन्होंने भगवान के आदेश के अनुसार अभांगो की रचना अत्यंत ललित मराठी-भाषा मे आरम्भ की, उनमे श्रुति का सार भरा रहता था, वैदिक रहस्य का माधुर्य विलास करता था। भक्ति पक्ष पर विशेष जोर था। ज्ञान और कर्म-काण्ड की महत्ता का नाममात्र विवरण भी उन अभंगों में न था। पूना से नौ मील की दूरी पर वाघोली ग्राम में रामेश्वर भट्ट नाम के एक शास्त्रज्ञ कर्मकाण्डी ब्राह्मण रहते थे। उन्होंने मराठी भाषा मे रचे गये अभांगों की उपेक्षा की और कहा कि इस प्रकार की रचना से देववाणी और शास्त्रज्ञान का अपमान होता है पर आश्चर्य तो यह था कि चारो वर्ण के लोग तुकाराम महाराज के अभंगो को गाते-फिरते थे। रामेश्वर भट्ट के लिये यह बात असहय थी। उन्होंने देहू के राजाधिकारी से प्रार्थना की कि तुकाराम को देहू से निष्कासित कर दिया जाय। तुकाराम तो दैन्य की मूर्ति थे। वे रामेश्वर भट्ट से मिलने गये। उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा कि महाराज मैं तो विट्ठल की ही प्रेरणा से मराठी में अभंगो की रचना करता हूँ पर यदि आप जैसे महान वेदज्ञ की सम्मति नही है तो मैं रचना नही करूँगा पर इतना बता दीजिये कि जो अभंग अब तक रचे गए है, उनके संबंध में क्या करूँ। भट्ट ने कहा कि उन्हें इन्द्रायणी की धारा में डूबा दीजिये, यदि भगवान की कृपा से वे तेंरह दिन के बाद सुरक्षित मिल जायेंगे तो मैं मान्यता प्रदान कर दूंगा। संत तुकाराम ने भट्ट की आज्ञा का पालन किया पर अभंगो को इस प्रकार इन्द्रायणी में प्रवाहित कर देने पर उन्हें बड़ा दुःख हुआ। वे मंदिर के प्रमुख द्वार पर बिना अन्न जल ग्रहण किये पड़े रहे। भगवान के भक्तों का विनाश असंभव है, उनकी कीर्ति अमर और अटल है। विट्ठल ने देहू ग्राम के निवासियों को स्वप्न में आदेश दिया कि तुकाराम के अभंग इन्द्रायणी के धरातल पर सुरक्षित है, उन्हें लाकर तुकाराम को दे दो। इधर तेंरहवे दिन प्रभु ने बालरूप में तुकाराम को अपने दर्शन से धन्य किया और अभंगो के सुरक्षित होने की बात बतायीं। रामेश्वर, तुकाराम के चरणों मे गिर पड़े, महाराज तुकारामजी ने प्रेम से उनका आलिंगन किया, रामेश्वर ने कहा कि मैं शुद्र हूँ, मुझे अपने चरणों की धूलि लेने दीजिये। रामेश्वर भट्ट तुकाराम महाराज के शिष्य हो गये। उनकी एक स्थल पर उक्ति है।
‘ऊँच नीच वर्णन म्हणावा कोणी। जेका नारायणी प्रिय झाले।।
चहूवर्णासी हा असे अधिकार। करिता नमस्कार दोष नाही।।’
‘जो नारायण के प्रिय पात्र है उनके उत्तम-कनिष्ठ वर्ण के विचार का कुछ भी महत्व नही है। चारो वर्णो का यह अधिकार है, उन्हें नमस्कार करने में तनिक भी दोष नही है।’ रामेश्वर भट्ट की गणना महाराज के प्रधान शिष्यों में है।
महाराज के जीवन-चरित्र में अनेक विचित्र घटनाओ का उल्लेख पाया जाता है…। एक बार वे मंदिर में भगवन्नाम का कीर्तन कर रहे थे। एक ताम्रकार-ठठेर भी उनके कीर्तन में सम्मिलित हुआ। ठठेर की स्त्री ने उसे कीर्तन में जाने से रोका पर उसने स्त्री की बात न मानी। ठठेर का छोटा बच्चा इसी बीच मर गया। उसकी पत्नी ने मृत बच्चे को कीर्तन के मध्य में रख दिया। उसने तुकाराम से कहा कि महाराज आप ने तो मेरा घर ही उजाड़ दिया, हरि का नाम हमारे परिवार के लिये लाभदायक नही सिद्ध हुआ। महाराज ने कहा कि हरि का नाम तो अमृत से भी बढ़ कर लाभदायक है। वे ‘विट्ठल-विट्ठल’ कह कर कीर्तन करने लगे। श्रोताओ ने भी जोर-जोर से कीर्तन करना आरंभ कर दिया। हरिनाम के प्रताप से बच्चा जी उठा। कीर्तन-मंडली में प्रसन्नता छा गयी, चारो ओर तुकारामजी की जयध्वनि सुनाई पड़ने लगी।
एक बार एक वेदान्ती ने महाराज तुकाराम को वेदान्तपरक नया रचा हुआ ग्रंथ सुनना चाहा, पहले तो महाराज ने बड़ी चेष्टा की कि किसी प्रकार पीछा छूटे पर अंत मे वेदान्ती ने पड़ना आरम्भ किया। महाराज ने सिर से पैर तक समस्त शरीर कम्बल से ढक लिया। वे भगवान का स्मरण करने लगे। वेदान्ती को बड़ा आश्चर्य हुआ कि महाराज कुछ बोल ही नही रहे है। उसने कम्बल खिंचा और देखा कि महाराज दोनो कानो पर हाथ रख कर ध्यानस्थ है। महाराज ने कहा कि ब्रह्म-ज्ञान होना एक बात है और ब्रह्म की शक्ति को पाना दूसरी बात है, मनुष्य ब्रह्म-ज्ञानी हो सकता है पर वह ब्रह्म के समान शक्तिशाली नही हो सकता, इसलिये भक्ति का पथ ही वरणीय है। भगवान की भक्ति ही श्रेयस्कर है, उसी की प्राप्ति के लिये ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये। भगवान की कृपा से ही भक्ति मिलती है।
प्रभु अपने भक्तों के यश-विस्तार के लिये लीला किया करते है। एक बार की घटना है। तुकाराम महाराज उन दिनों कठिन तप कर रहे थे, उनकी पत्नी उनकी भक्ति से वश में हो गयी थी, वह तुकाराम महाराज की आज्ञा के अनुसार सारे कार्य करती थी। एक बार महाराज ने समझाया कि भगवान हम लोगों के योग-क्षेम का ध्यान रखते है, अपने पास जो कुछ भी हो, दीन-दुखियों की सेवा में लगा दो। पत्नी ने सब कुछ ब्राह्मणों और कंगालों को दे दिया। पहनने के लिये एक साड़ी ही रह गयी थी। महाराज से एक ब्राह्मणी ने साड़ी मांगी, पत्नी उस समय स्नान कर रही थी, तुकाराम ने साड़ी दे दी। बाद में पत्नी को बड़ा दुःख हुआ। उसने हाथ मे एक पत्थर का टुकड़ा ले लिया, वह मन्दिर में गयीं और भगवान के चरणों मे प्रहार करना चाहती थी, लीलापति थर-थर कांपने लगे। भक्त की पत्नी का कोप देख कर रुक्मिणी ने कहा कि भाग चलिये। विट्ठल ने कहा कि मेरे भागने से भक्ति की मर्यादा का लोप हो जायेगा, भक्त की साख मिट जायेगी। पत्नी ने यह घटना तुकारामजी को सुनाई तो वे प्रभु से क्षमा मांगने के लिये मंदिर के द्वार पर पहुँच गये। पत्नी मन्दिर में चली गयी, मन्दिर के पट अपने आप बन्द हो गये। तुकाराम बाहर ही खड़े रह गये, पश्चाताप करने लगे। इधर रुक्मिणी ने उनकी पत्नी को बहुत से रुपये दिये, पहनने का वस्त्र प्रदान किया। पट खुल गये। इस प्रकार विट्ठल देव ने तुकाराम महाराज की भक्ति और श्रद्धा का लीलापूर्वक रसास्वादन किया। भगवान सदा अपने भक्त का संरक्षण करते है।
छत्रपति शिवाजी महाराज उन दिनों स्वराज्य की संस्थापना में संलग्न थे, वे स्वधर्म और स्वराज्य का संरक्षण कर रहे थे। साधु-सन्तों में उनकी स्वाभाविक निष्ठा थी तुकाराम जी महाराज से वे बहुत प्रभावित थे। वे उनका दर्शन करने के लिये लोहगांव भी गये थे। उन्होंने तुकाराम जी महाराज को अपना गुरु बनाना चाहा पर संत तुकाराम ने समर्थ रामदास को गुरु बनाने की सम्मति दी। शिवाजी महाराज की बड़ी इच्छा थी कि एक बार महाराज उनकी राजसभा को अपनी उपस्थिति से पवित्र करे, उन्होंने महाराज को ठाट-बाट से लाने के लिए बहुत से सैनिक अधिकारी भेजे, उपहार में अनेक कीमती वस्तुएँ भेजी पर तुकाराम महाराज ने किसी भी दशा में जाना स्वीकार नही किया। उन्होंने शिवाजी को पत्र लिखा कि आप की राजसभा में उपस्थित होने से मेरा क्या लाभ है। भिक्षा ओर वस्त्र तो बहुत से मिल जाएंगे। शिलाखंड ही मेरा बिस्तरा है, आसमान मेरा ओढ़ना है। यदि आप की राजसभा में मुझे सम्मान मिलेगा तो क्या इससे शांति की प्राप्ति हो सकेगी। भिक्षुक होने में ही परमानंद है, तपस्या और त्याग से बढ़कर कीमती वस्तु संसार मे कुछ भी नही है। धनी तो वासना के बंधन में सदा दुःखी रहते है। भगवान के भक्त, राजाओ से कही अधिक भाग्यशाली होते है। आप असहायों की रक्षा कीजिये, सचराचर में परमात्मा का दर्शन कीजिये, समर्थ रामदास के चरण का आश्रय ग्रहण कीजिये, आप का जीवन पृथ्वी पर धन्य है। तुकाराम ने बताया–
‘आम्ही तेणें सुखी। म्हणा विट्ठल विट्ठल मुखी।।
कठी मिरवा तुलसी। व्रत करा एकादशी।।’
‘मुझे तो इसी में सुख है कि आप विट्ठल-विट्ठल कहिये, कंठ में तुलसी की माला धारण कीजिये और एकादशी व्रत का पालन कीजिये।’
एक बार पण्ढरपुर में संतो की बहुत बड़ी सभा हुई। देश के कोने-कोने से संतो और भक्तों का आगमन हुआ। सारा प्रबंध शिवाजी महाराज की ओर से था। शिवाजी इस सम्मेलन में स्वयं उपस्थित थे। समर्थ रामदास और तुकाराम ने अपने कथा-कीर्तन से इस सम्मेलन को सफल बनाकर भगवद्भक्ति का संदेश फैलाया।
एक बार एक मन्दिर में तुकाराम महाराज हरिकीर्तन कर रहे थे। दैव योग से शिवाजी महाराज इस समारोह में उपस्थित थे। शत्रुओ को उनकी उपस्थिति का पता चल गया पर वे कीर्तन से न उठे, उनका पूरा-पूरा विश्वास था कि सन्त तुकाराम की कृपा तथा भगवान की प्रसन्नता से उनका बाल भी बाका नही होगा। तुकाराम महाराज के कीर्तन-अमृत का परित्याग कर नश्वर देह को बचाने के लिये भागना उन्होंने उचित नही समझा। चाँदनी रात थी, हवा ठण्डी-ठण्डी चल रही थी। शत्रुओ को शिवाजी के रूपवाले सौ व्यक्ति दीख पड़े। भगवत्प्रेरणा से शत्रु जंगल की ओर भाग गये और कीर्तन अबाध गति से रातभर चलता रहा।
तुकाराम महाराज ने कहा कि उसका जीवन पृथ्वी पर सफल है जो अपनी वाणी का उपयोग भगवान के कीर्तन-भजन में करता है।
‘तुका म्हणे वाणी। सूखे वेचा नारायणी।’
सन्त तुकाराम ने तत्कालीन महाराष्ट्र को ही नही सम्पूर्ण भारतीय राष्ट्र को आत्मदर्शन-भगवद्दर्शन प्रदान किया। वे भक्त संत थे। संत तुकाराम का सबसे बड़ा काम यह था कि लोगो में उन्होंने भगवदविश्वास की ज्योति फैलाई, सगुण और निर्गुण ब्रह्म के चिंतन का समन्वयात्मक रूप प्रदान किया। उन्होंने गाँव-गाँव तथा नगर-नगर में घूम कर भगवन्नाम-संकीर्तन, भजन और हरिकथा का प्रचार किया। महाराज ने निर्मल ब्रह्म ज्ञान, शुद्ध भगवत्तत्व की खोज की। उन्होंने प्रण किया था कि भिखारी भले ही हो जाऊँ पर पण्ढ़री का वारकरी-भक्त वैष्णव बना रहूँगा। मुख में विट्ठल का नाम रहे, बस यही मेरा नियम है, धर्म है। विट्ठल ही मेरे भगवान है। महाराज की उक्ति है–
पण्ढ़रीची वारी आहे माझे घरी। आणिक न करी तीर्थव्रत।।
व्रत एकादशी करीन उपवासी। गाईन अहर्निशी मुखी नाम।।
‘पण्ढरी की यात्रा करने का नियम मेरे घर मे चला आया है, मैं वही करता हूँ, तीर्थव्रत मेरे लिये सब कुछ वही है। उपवासपूर्वक एकादशी करूँगा और रात-दिन मुख से भगवन्नाम का कीर्तन करूँगा।’ महाराज ने आजीवन इस उक्ति को जीवन मे चरितार्थ किया। तुकारामजी की भगवद्भक्ति उच्च कोटि की थी। तुकारामजी ने अपने ढंग से भगवान के स्वरूप का चिंतन किया। वे एक बार पण्ढरपुर नही जा सके। उन्होंने अभंग रच कर भक्तो को दे दिये। देहू के वारकरियों ने भीमा नदी में स्नान कर पाण्डुरंग के सम्मुख कीर्तन करना आरंभ किया। विट्ठल ने तुकाराम को पण्ढरी लेने के लिये गरुड़ भेजा पर महाराज में भगवान के वाहन पर बैठकर जाना अस्वीकार कर दिया। स्वयं विट्ठल ने रुक्मिणी सहित महाराज को देहू में दर्शन दिया, उन्होंने मोरमुकुट, मकराकृत कुंडल, पीताम्बर, कौस्तुभमणि, नूपुर आदि धारण किये थे। तुकाराम ने उनसे परम पद-अभय पद-भक्ति की ही याचना की। तुकाराम ने प्रेम स्वरूप भगवान की उपासना की। उनके भगवत्प्रेम का मूलाधार मानस-उपासना है। ह्रदय का उनके चरणों में समर्पण ही उच्च कोटि की भक्ति है― उनकी यह मान्यता थी।
भगवान भक्ति और प्रेम से ही प्रसन्न होते है―ऐसा उनका अटल विश्वास था। वे भगवान की कृपा शक्ति पर ही सदा निर्भर रहते थे। तुकाराम ने कहा कि कीर्तन से शरीर पवित्र होता है, भगवत्प्रेम की प्राप्ति होती है। उन्होंने कहा कि साधक में सद्भाव होना परम आवश्यक है, भगवान के संमुख भाव का ही बल चलता है। चित्त शुद्ध करके भावपूर्वक भगवान का भजन ही उच्च कोटि की साधना है। सन्त-चरण पर मस्तक नत करने से ईश्वर की प्राप्ति होती है। महाराज ने एक अभंग में कहा है– ‘भगवान स्वयं ही उचित और ठीक मार्ग दिखा देते है, वे दयालु है, हृदय में भाव होना चाहिये।’ तुकाराम महाराज ने अपनी विवशता के संबंध में कहा कि इतनी आयु नही है कि समस्त ग्रन्थ पढ़ सकू। विट्ठल सब कुछ कर देंगे। उनकी कृपा से जो ज्ञान प्राप्त होगा उसे हृदय में रख लूँगा।
महाराज ने स्पष्ट कहा कि मुझे आत्मस्थिति ब्रह्मज्ञान की आवश्यकता नही है। मैं तो सदा भक्त ही की स्थिति में भक्तिरस का आस्वादन करना चाहता हूँ। मुझे तो गोपिकारमन भगवान श्यामसुंदर के ही दर्शन की आवश्यकता है। तुकाराम महाराज ने एक अभंग में भगवान से आत्मनिवेदन किया कि मेरी जाति हीन है पर सन्तजन मेरी स्तुति करते है। मेरा अभिमान बढ़ रहा है, मेरा जीवन व्यर्थ होना चाहता है। प्रभु मेरी रक्षा कीजिये, नही तो में कही का भी नही रह जाऊँगा। महाराज ने सगुण-निर्गुण ब्रह्म के समन्वय-माध्यम से कहा–
‘सगुण निर्गुण जयाची ही अंगे।
तेचि आम्हा संगे क्रीड़ा करी।।’
‘सगुण-निर्गुण जिनके अंग है वे ही नारायण हमारे साथ क्रीड़ा किया करते है।’
भगवान की कृपा से उनको निर्मल सच्चिदानंद तत्व का बोध था।
तुकाराम महाराज ने सदा भगवत्तत्व की ही विवेचना की। जीवन को पूर्णरूप से भगवद्मय बनाना ही उनकी साधना का स्वरूप था। इस सम्बन्ध में उनके द्वारा रचे गये अभंग भक्ति-जगत ओर संत-साहित्य को बहुत बड़ी देन है उनका समस्त आचरण भगवान के चरणों पर समर्पित था, भागवतधर्म-वैष्णवधर्म के विस्तार में निस्सन्देश महाराज ने अद्भुत योग दिया। उनके अभंगो में प्रभु की कृपा और रूप-सौंदर्य माधुर्य का पुष्कल वर्णन मिलता है।महाराज की सन्त वचन और पुराणों में अमित आस्था थी। महाराज ने गुरु शिष्य के सम्बन्ध में एक अनोखी बात कही-
‘गुरु शिष्य पण। हे तों अधम लक्षण।।
भूति नारायण खरा। आप तैसाचि दूसरा।।’
‘गुरु बनना और चेला बनाना अधमता है। भूतमात्र में नारायण है―यह बात सच है, इसलिये हमारे और दूसरे में क्या अंतर हैं।’
महाराज तुकाराम गृहस्थ संत थे। अंत समय में उनके दो पुत्र महादेव और विठोबा तथा तीन कन्या काशी, भागीरथी और गंगा उपस्थित थे। सम्वत् 1706 वि. की चैत कृष्ण द्वितीया को तुकाराम महाराज ने सदेह स्वर्ग की यात्रा की, मयूर कवि की वाणी है कि जिस प्रकार भगवान राम सदेह स्वर्ग गये उसी प्रकार तुकाराम महाराज ने शरीर से ही वैकुंठ की यात्रा की। देहू में उनके अभंगो की पूजा होती है। उनके वैकुण्ठ-गमन के बाद शिवाजी देहू आये थे, उन्होंने चार गाँव जागीर के रूप में उनके वंशजो को प्रदान किये। संत तुकाराम संत, कवि और महान भक्त थे।